Saturday 6 September 2014

चिंतामणि जी राशन की दुकान पर



आज घूमते घूमते चिंतामणी कुमार 'शोषित' फिर से मेरे घर आ गये | .....किसी गिरी हुयी सरकार के भावुक मंत्री की तरह उनके चेहरे पर बड़ा दयनीय भाव था ....आँखे तो बस तैयार थी बरसने को .... फिर मम्मी को दो चाय के लिए बोलकर और थोड़ी से हिम्मत बटोर कर .....मैंने पूछा चिंतामणी जी आज सुबह सुबह ...... सब खैरियत तो है ना ......और बस सब्र का बाँध छलक गया ..... जो भी था दिल में वो शब्दों में बह गया ...... तो चिंतामणी जी की कहानी ..... मेरी जुबानी

 होकर श्रीमती जी की रोज रोज
की खीच खीच से परेशान
लाने को राशन चिंतामणि जी
पहुच गये राशन की दूकान |

दूकान जाकर पता लगा,
आटे दाल के भाव
जा रहे सातवे आसमान,
तब बचे पैसो से चाट खाने के
उनके टूट गये अरमान |

उन्होंने जब देखा अपने बजट का हाल
की या तो आटा आएगा या फिर दाल |

और वो सोचने लगे की
अकेली दाल क्या पेट भरेगी
और आटा लिया तो
दाल की कमी अखरेगी |

तेल तो इस महंगाई में
बदन से ही निकल आएगा
पानी जब पीने को नहीं तो
नहाने का साबुन क्या काम आएगा

भगवान् को भी प्रसाद 
कहा से चढाऊंगा
कुछ दिन हाथ जोड़कर
और खीसे निपोरकर ही
काम चलाऊंगा |

और ऐसे दौड़ा कर अपनी
कल्पना के घोड़े सारे
चिंतामणी जी बिन कुछ लिए
घर वापस पधारे |

पर उनकी आँखों में “विशाल”
एक ही सवाल |
कब तक महंगाई नोचेगी
यूँ ही आम आदमी की खाल |
                        विशाल सर्राफ धमोरा
 

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