Sunday 31 August 2014

गोंद के लड्डू



हॉस्टल का समय .....मोटी मोटी किताबे ..दोस्तों का साथ .......बेपरवाही ......खूब सारी मौज मस्ती ....पर कमरे का दरवाजा बंद करते ही मन का पाखी अचानक से पहुँच जाता घर गाँव में ...कभी मुंडेर पर बैठता.......कभी आँगन के चक्कर लगाता ....कभी खाना बनाती माँ को देखता तो कभी दादी की गोद में बैठता ...कभी यूँ ही उड़ता रहता गाँव की गलियों में तो कभी बैठ जाता बूढ़े पीपल पर ...........और ऐसे में जब घर से कुछ जाता है तो जैसे सब कुछ मिल जाता है...... वो मिट्टी पेड़ आँगन यादें ........जैसे कोई साथी .....ऐसे ही जब गोंद के लड्डू गये घर से तो मन में जो विचार आये ......वो विचार

आज घर से फिर डिब्बा भरकर 
आये है वो गोंद के लड्डू 

माँ के हाथो की खुशबु का 
अहसास कराते वो गोंद के लड्डू 

मेरे घर आँगन मेरी मिट्टी की 
याद दिलाते वो गोंद के लड्डू 

दादी की दुआए दीदी का स्नेह 
खुद में समेटे वो गोंद के लड्डू 

सुबह सवेरे धुप में बैठकर
हम थे खाते वो गोंद के लड्डू 

कभी कभी भाई बहन में
छिना झपटी करवाते वो गोंद के लड्डू 

पर भीड़ की इस तन्हाई में भी 
अपनापन देते वो गोंद के लड्डू 

“विशाल” की इन आँखों से 
एक मौन संवाद बनाते वो गोंद के लड्डू 

रिश्तो की उस मिठास का 
मोल समझाते वो गोंद के लड्डू  
                       
-विशाल सर्राफ धमोरा 

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